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इ॒मे मा॑ पी॒ता य॒शस॑ उरु॒ष्यवो॒ रथं॒ न गाव॒: सम॑नाह॒ पर्व॑सु । ते मा॑ रक्षन्तु वि॒स्रस॑श्च॒रित्रा॑दु॒त मा॒ स्रामा॑द्यवय॒न्त्विन्द॑वः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ime mā pītā yaśasa uruṣyavo rathaṁ na gāvaḥ sam anāha parvasu | te mā rakṣantu visrasaś caritrād uta mā srāmād yavayantv indavaḥ ||

पद पाठ

इ॒मे । मा॒ । पी॒ताः । य॒शसः॑ । उ॒रु॒ष्यवः॑ । रथ॑म् । न । गावः॑ । सम् । अ॒ना॒ह॒ । पर्व॑ऽसु । ते । मा॒ । र॒क्ष॒न्तु॒ । वि॒स्रसः॑ । च॒रित्रा॑त् । उ॒त । मा॒ । स्रामा॑त् । य॒व॒य॒न्तु॒ । इन्द॑वः ॥ ८.४८.५

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:48» मन्त्र:5 | अष्टक:6» अध्याय:4» वर्ग:11» मन्त्र:5 | मण्डल:8» अनुवाक:6» मन्त्र:5


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शिव शंकर शर्मा

पुनः अन्न का ही वर्णन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्दो) हे अन्नश्रेष्ठ ! (च) पुनः जब तू (अन्तः) हृदय के भीतर (प्रागाः) जाता है, तब तू (अदितिः) अदीन=उदार होता है। पुनः (दैव्यस्य+हरसः) दिव्य अर्थात् अधिक क्रोध का भी (अवयाता) दूर करनेवाला होता है। पुनः (इन्द्रस्य) जीव का (सख्यम्) हित (जुषाणः) सेवता हुआ (राये+अनु+ऋध्याः) ऐश्वर्य्य की ओर ले जाता है। यहाँ दृष्टान्त देते हैं−(श्रौष्टी+इव+धुरम्) जैसे शीघ्रगामी अश्व रथ को अभिमत प्रदेश में ले जाता है ॥२॥
भावार्थभाषाः - प्रथम यह सदा स्मरण रखना चाहिये कि जड़ वस्तु को सम्बोधित कर चेतनवत् वर्णन करने की रीति वेद में है। अतः पदानुसार ही इसका अर्थ सुगमता के लिये किया गया है। इसी को प्रथम पुरुषवत् वर्णन समझ लीजिये। अब आशय यह है−जब वैसे मधुमान् अन्न शरीर के आभ्यन्तर जाते हैं, तो इनसे अनेक सुगुण उत्पन्न होते हैं। इनसे शुद्ध रक्त और माँस आदि बनते हैं। शरीर की दुर्बलता नहीं रहती। मन प्रसन्न रहता है। परन्तु जब पेट में अन्न नहीं रहता या अन्न के अभाव से शरीर कृश हो जाता है, तब क्रोध भी बढ़ जाता है। वह क्रोध भी अन्न की प्राप्ति से निवृत्त हो जाता है। शरीर नीरोग और पुष्ट रहने से दिन-दिन धनोपार्जन में मन लगता है। अतः कहा जाता है कि अन्न क्रोध को दूर करता है। इत्यादि ॥२॥
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शिव शंकर शर्मा

पुनरन्नं विशिनष्टि।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्दो ! च=पुनः। यदा त्वम्। अन्तर्हृदयस्य मध्ये। प्रागाः=प्रगच्छसि। तदा त्वम्। अदितिरदीनः। भवासि=भवसि। पुनः दैव्यस्य। हरसः=क्रोधस्य। अवयाता=पृथक्कर्त्ता भवसि। पुनः। इन्द्रस्य=जीवस्य। सख्यम्। जुषाणः=सेवमानः। राये=ऐश्वर्य्याय। अनु+ऋध्याः=अनुप्रापयति। अत्र दृष्टान्तः। श्रौष्टीव धुरम्। श्रुष्टीति शीघ्रनाम। शीघ्रगामी अश्वो यथा। धुरं अभिमतप्रदेशं नयति। तद्वत् ॥२॥